शुक्रवार, 25 मार्च 2011

बोल मेरी मछली कितना पानी ??




प्रवीण शुक्ल 
               वो भी क्या दिन थे जब बचपन में हम खेला करते थे, हम 5-6 साथी एक घेरा बनाते और एक साथी को बीच में मछली बना कर खड़ा करते और पूछते कि  "भरा समंदर गोपी चंदर बोल मेरी मछली कितना पानी"  तब मछली बना साथी बीच में से बताता कि इतना पानी....

                     आज मै सोचता हूँ आखिर इस खेल की उपज किसने और क्यों की ? आप ही सोचिये जरा...ये खेल खिला हमारे बुजुर्ग हमको बचपन से ही आने वाले कल (आज) से आगाह नहीं कर रहे थे क्या ? जब खेल में पानी की लगातार होती कमी से बीच में मछली बना साथी मरने का अभिनय करता था तो उस समय तो हमको, हमारे बाल मन को बहुत दुखता था, इतना तो समझ में आता था कि काश ये बच जाती और बचती तभी जब कि हमारे बनाये भरे समंदर में पानी रहता.. जल संरक्षण की भावना को हमारे बाल्यकाल से ही हमारे अंदर तक बिठा कर हमारे बड़ो ने तो अपना काम किया ही लेकिन अब हम क्या कर रहे है ???
                    
                    अब हम ज्यादा समझदार हो गए है,बड़ी डिग्रियां मिल गयी जो हमारे पढ़े लिखे होने के गर्व का कारण हैं, हम अपने सभी कार्य एक तय नियम से करने में विश्वाश करने लगे हर काम समय से....  कब उठना,,  कब खाना,,  कब काम पर जाना,,  कब आना,, आदि, और हमारी याददाश्त तो देखिये हमको सब याद भी रहता है बस भूल गए तो वो खेल जो कि सीधा हमारी जीवन रेखा से जुड़ा है,  वो खेल जिसको कि अब हम ज्यादा बेहतर तरीके से अपनी आने वाली पीढ़ी को खिला सकते है उनको बता सकते है कि हम जो गलतियाँ कर रहे है वो भी करेंगे तो मछली तो मछली उनका अस्तित्व भी अनिश्चिता के घेरे में आ जायेगा |
                    
                     जल की उपयोगिता जानने के लिए अगर पृथ्वी के प्रारंभ से देखे तो सभी धर्मो  ने इसको सबसे ज्यादा महत्व देते हुए इसका विभिन्न संदर्भो में उल्लेख किया है | आदम और हौव्वा को जब जन्नत से दोजख के लिए निकाला गया तो पानी के लिए तरसती हौव्वा  को अल्ला ने कहा की वो जितना रोएगी उतने आंसू  ही उसकी प्यास बुझाएंगे , जब वो सात दिनों तक रोई तब जाकर एक प्याला पानी बना | कर्बला की लड़ाई में बार बार पानी की जरुरत का उल्लेख है | हिन्दू धर्म के अनुसार सृष्टी के पालनकर्ता भगवान विष्णु जल के विशाल क्षीरसागर में निवास करते हैं , और तो और जब जब दुष्टो के पाप कर्मो से पृथ्वी घबराई तब तब उसने समुन्दर की शरण ली | इस तरह के अनेकोनेक उदाहरण हमारे पौराणिक इतिहास का हिस्सा हैं | अब समझने की बात ये है कि ये सिर्फ किस्से कहानियो के लिए बनाई गयी कथाएँ नहीं है बल्कि हमारे पूर्वजो द्वारा जल कि उपयोगिता को समझने और समझाने कि बात हैं |
                      
                       अब रही बात हमारी तो हम उनकी सब बातो को समझते न समझते उसको दरकिनार करते जा रहे है खुद तो जल बचाने कि कोशिश नहीं कर रहे और जो प्राकुतिक रूप से जल के स्त्रोत है उनपर भी अपनी काली नज़र डाल चुके है | जो नदियाँ, तालाब, झील ईश्वर द्वारा प्रद्दत थे उनको पहले तो मैला कर दिया कभी व्यापार के नाम पर, कभी धर्म और आस्था के नाम पर | कभी फैक्ट्रियो का कचरा बहाया गया तो कभी किनारे पर यज्ञ किये गए | भगवान के नाम पर भगवान के सबसे पहले इशारे को ही किनारे कर दिया | जो भी नदी, तालाब कभी  सूखा दुबारा कभी हमने उसको भरने की नहीं सोची और तो और उस जमीन के पट्टे करा लिए और पहले खेती की फिर किसी बिल्डर को बेच मकान दुकान बनवा कर खुश हो लिए | बस इतना भूल गए कि हम आने वाली पीढ़ी को क्या दे रहे है |

                         अब तो यही लगता है कि जब भी ये जल अपना हिसाब मांगेगा तो हम निरुत्तर ही होंगे | हौव्वा ने  तो सात दिन रोने के बाद एक प्याला आंसू पीने के लिए एकत्र भी कर लिए थे हम तो पूरी जिन्दगी में न कर पाएंगे क्यूकि हमारी आत्मा के साथ हमारे आंसू भी मर चुके हैं !!!

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